+91-9414076426
Avnish Jain | Nov 20, 2023 | Editorial
पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव सिर पर खडे़ हैं और अभी तक प्रत्याशियों के नाम तय नहीं हो रहे हैं। दोनों ही प्रमुख दलों के आलाकमान सिर खुजा चुके। देश ही नही विश्व के पुराने और बड़े लोकतंत्र की और दयनीय दशा क्या हो सकती है। कहीं आनन-फानन में पुराने विधायकों को थोक के भाव टिकिट दिए, कहीं हारे हुओं की किस्मत के ताले खुले, कहीं बाहुबली-माफिया-भ्रष्ट दावेदार टिकट ले उडे़। आलाकमान पहले किसी चुनाव में ऐसे भयभीत भी नहीं होते थे। दावेदार भी कभी ऐसे नहीं गुर्राते थे। बागी लोेगों के तेवर, चुनाव में उतरने की तैयारी बता रही है कि उनको अपनी जीत के आगे पार्टी का अस्तित्व बहुत छोटा लग रहा है।
इसका मुख्य कारण है राज्यस्तरीय नेतृत्व का अभाव। ऐसा पहली बार हुआ है कि विधानसभा के लिए टिकट ऊपर वाले बांटने लगे हैं। राजस्थान हो, मध्यप्रदेश हो या अन्य कोई प्रांत, स्थानीय स्तर के नेता ही नहीं है। कोई किसी के आदेश की परवाह ही नहीं करता। तीनों हिन्दी राज्यों में नेतृत्व (सर्वमान्य) ही नहीं है। दोनों दलों में धड़ेबाजी, अनुशासनहीनता का ही प्रकोप है। दूर बैठे को लगता होगा कि नेतृत्व तो है। मध्य प्रदेश कांग्रेस में दिग्विजय सिंह और कमलनाथ की अपनी-अपनी सेना है। पीएम-सीएम की चर्चा सार्वजनिक हो चुकी है। राजस्थान में वसुंधरा की लहर भले ही ठंडी दिखाई ही दे रही है, फुफकार तो सुनाई दे रही है। नीचे राज्य स्तर का नेता दिखाई ही नहीं देता। पायलट के पीछे की शक्ति अशांत है। छत्तीसगढ़ भाजपा में नेता कहां है? बघेल (मुख्यमंत्री) और सिंह देव की सेना पूरे आवेश में है। यह जो खेमाबन्दी है, वह लोगों को जीत के लिए नहीं, हारने/हराने के लिए प्रेरित कर रही है।
भाजपा आलाकमान में दो नेता, काग्रेंस आलाकमान में एक परिवार ही देश के लोकतंत्र को संभाले हुए है। ये शासक वर्ग है, शेष देशवासी शासित हैं। सत्ता का विकेन्द्रीकरण कहीं नहीं है। नीचे हर जन प्रतिनिधि स्वयं को शासक मान बैठा है। सत्ता उसका अधिकार बन गया है-वही राज करेगा या उसका परिवार। नौकरशाह सूटकेस पहुंचाएगें। अब दो, किसी अन्य को टिकट। खा जाऊंगा। ज्यादा किया तो बिखेर दूंगा, लेकिन किसी अन्य को खाने नहीं दूगां। कैसा खून मुहं लगा है। यही भ्रष्टाचार के केन्द्रीकरण का भी मूल कारण बन गया। ऊपर-नीचे न तो नेतृत्व का विकास और न ही नियंत्रक तंत्र है। सरकार का पर्याय भ्रष्टाचार है। राजीव गांधी काल में कहा गया कि 1 रुपए में से नीचे तक सिर्फ 15 पैसे पहुंचते हैं। आज कुछ नहीं पहुंचता। राजस्व तो वेतन-पेंशन-ब्याज में भी कम पड़ता है। इसके लिए भी उधार लेना पड़ता है। विकास में भी उधार की चवन्नी नहीं लगती। इसका एक ही उत्तर है, नीचे तक नेतृत्व का विकास और निर्णयों का विकेन्द्रीकरण।